हिंदी कविता प्यार में इच्छाओं पर
एक शाम के इंतज़ार में
कोई शाम ऐसी भी तो हो
जब तुम लौट आओ घर को
और कोई बहाना बाकी न हो
मुदत्तों भागते रहे खुद से
जो चाहा तुमने न कहा खुद से
तुम्हारी हर फर्माइश पूरी कर लेने को
कोई शाम ऐसी भी तो हो
जब तुम लौट आओ घर को
और कोई बहाना बाकी न हो
मैं हर किवाड़ बंद कर लूँ
के कोई दरमियाँ आ न सके
बस ढलते सूरज की रौशनी में हम दोनों
कोई शाम ऐसी भी तो हो
जब तुम लौट आओ घर को
और कोई बहाना बाकी न हो
ढेरो शिकायतें शिकवे गिले
जो अब तक दिल में हैं दबे पड़े
उन्हें तुम्हारे सीने में छूप के कह लेने को
कोई शाम ऐसी भी तो हो
जब तुम लौट आओ घर को
और कोई बहाना बाकी न हो
हो हर सुबह शुरू तुमसे
और रात आँखों में कटे
जैसे लम्बे इंतज़ार की थकान बाकी न हो
कोई शाम ऐसी भी तो हो
जब तुम लौट आओ घर को
और कोई बहाना बाकी न हो
अर्चना की रचना "सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास"
Ek Sham Ke Intezar Me Hindi poetry On desires in love
Reviewed by Archana7p
on
September 11, 2019
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